काफ़ी समय हुआ... सोचता हूँ कुछ चीजों के आविष्कार और उपयोग सुझाने वाले लोगों का 'शुक्रिया' अदा करना चाहिए... ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो आपने, मैंने, हम सबने कभी न कभी उपयोग की होंगी ... पर कभी, चंद सेकंड्स रुक करा सोचा नही की हम ये स्वीकार करें की ये चीज़ें ना होती तो जीवन वाकई दूभर होता। बहुत सोचा... इस लिस्ट में क्या शामिल करुँ क्या नहीं... जो मुझे ज़्यादा उपयोगी लगा, जोड़ दिया है... आप अपनी चीजें नीचे टिप्पणियों (कमेंट्स) में जोड़ सकते हैं :
१ एलास्टिक : बहुत सारी चीजों में इसका उपयोग हुआ है और होता रहेगा पर मैंने महसूस किया है अगर अधोवस्त्रों और पायजामों में इसका उपयोग नहीं होता तो बहुत सारे लोगों को अधिकतर कार्य शायद एक ही हाथ से करना पड़ते। एलास्टिक आपको एक अलग प्रकार का आत्मविश्वास देती है की विपरीत परिस्तिथियों में भी वस्त्र अपने स्थान पर बने रहेंगे। ये विश्वास, दिन हो या रात, आपको एक विशेष प्रकार की निश्चिंतता देता है.
२ जीभी : दाद देना पड़ेगी उसके दिमाग की जिसने सोचा की जीभ को सुविधाजनक रूप से साफ़ करने के लिए भी कोई ऐसा यन्त्र हो सकता है. सोचिये शरीर के एक ऐसे अंग को आप दोनों हाथ बाहर रखे ही भी आसानी से साफ़ कर सकते हैं जो पूर्णतया मुंह के अन्दर ही रहता है.
३ आइसक्रीम कोन : आइसक्रीम अपने आप में दूध और क्रीम को खाने का एक बहुत स्वादिष्ट और सुविधाजनक तरीका है. पर एक बार पिघलने पर इसको संभालना दूभर हो जाता है. यह हमेशा संभव भी नहीं होता की आप किसी बर्तन में रख कर इसे खाएं. कोन से बेहतर आइसक्रीम खाने का उपाय शायद ही दूसरा कोई हो. इस तरह ना सिर्फ आप अपनी सुविधा से इसे किसी भी स्थान पर ले जा कर खा सकते हैं बल्कि खाने पश्चात बर्तन लौटाने या फेंकने का सरदर्द भी नहीं रहता.
४ हथोड़ी : एक लोहे की पतली तार-नुमा वस्तु को किसी अपेक्षाकृत नरम वस्तु के अन्दर पहुंचाने के लिए हथोड़ी से सुविधाजनक और सस्ता शायद कोई औजार नहीं है. चूँकि हम लगभग सभी इस औजार का उपयोग होश सँभालने के दिनों से ही कर रहे हैं इसलिए अब ये सोचना और स्वीकार करना नामुमकिन सा लगता है की इसके बिना भी कभी काम होता होगा. दाद देना पड़ेगी उसके दिमाग जिसने सोचा की ऐसा भी कोई औजार हो सकता है जिसका सिर अगर उसके लक्ष्य के सिर से बड़ा और वज़नी तो वो अपने लक्ष्य को आसानी से आगे धकेल सकता है.
५ टी.वी. का रिमोट कंट्रोल : एक वो भो ज़माना था जब इंसान (कम से कम भारत में) सोचता भी नहीं था की टीवी देखने के लिए भी आपको विकल्प मिलेंगे. १९८०-८५ के आसपास जब टीवी पर सिर्द दूरदर्शन आता था तोह कम से कम मैं तो नहीं ही सोचता था की कभी ऐसा दिन भी होगा जब दूरदर्शन के अलावा भी कुछ देखूँगा... सच कहूं तो इस दिशा में इंसान सोचता भी शायद नहीं था... पर आज का दिन है..१००...२००.. २५०.. चैनल की संख्या लगभग अनियंत्रित होती जा रही है... जहां एक चैनल पर न्यूज़, फिल्म, नाटक... खेल, रंगोली, कृषि-दर्शन से ले कर पता नहीं क्या क्या आता था, अब इन सभी एक एक चीज़ों के लिए कई कई चैनल हैं. ज़रा सोचिये, अगर इस दशा में आपके पास रिमोट ना हो तो चैनल न. १२ से १८२ तक पहुँचने में आपकी नानी को भी नानी याद आ जायेगी. इस खोज ने हालाँकि एक नए युद्ध को ज़रूर जन्म दे दिया है - रिमोट के लिए घर में युद्ध. मेरे और भाई की आपस की लडाई में मैं अपने लिया नया रिमोट ले आया... जिसके साथ एक टीवी फ्री था!
... ऐसे अनेकों-अनेक उदहारण हमारे चारों तरफ बिखरे पड़े हैं... हजारों-लाखों चीज़ें हमारी ज़िन्दगियों को रोज़ प्रभावित करती हैं.. ये चंद चीज़ें मुझे याद आयीं ... आप अपने पसंदीदा उदहारण नीचे 'Comments' में शामिल कर सकते हैं...
This is a place for sketches (descriptions) & images of events, places, persons and everything else under the Sun or may be beyond it! You will find some of the great places, events, News makers but I would prefer to include more of pretty ordinary & common ones. As Blogger is providing it, I would like to keep my Blog bilingual - using both English & Hindi, as the situation demands... none is my forte though!
Wednesday, October 28, 2009
Monday, October 12, 2009
सबसे बड़ा सुख
परिस्थितियों के मुताबिक हम अक्सर विभिन्न चीजों की व्याख्या अलग अलग तरह से करते रहते हैं. ... एक सन्डे की दोपहर, नए नए ख़रीदे बीन-बैग पर कुछ आढा-टेढा सा लेटने की कोशिश करता हुआ मैं सोच रहा था 'साला, इस से बड़ा सुख कोई नहीं'... एक दोपहर में खाना खा कर, ऑफिस-घर के काम-काज से बेपरवाह, बेतरतीब से पड़े हुए एक पसंदीदा मैगजीन पढ़ना... वाकई में बड़ा सुख है.... पर सुख वास्तव में आपेक्षिक (relative) है ... किसी विशेष समय पर आपको कोई बहुत बडी चीज़ भी वो सुख नही दे पाती जो एक बहुत मामूली सी चीज़ दे देती है. फिर सुख प्रदान करने वाली चीज़ों की लागत का ध्यान रखना भी ज़रूरी है.... अब सुख की खातिर हर आम आदमी तो अपनी पत्नी या प्रेमिका को एक एयरबस A-३२० तो गिफ्ट नहीं कर सकता ना?... बहुत सारे मुझ जैसे आम आदमी तो पत्नी की मांग पर हीरों-का-हार या विदेशों में छुट्टियां देने में भी अक्सर सक्षम नहीं हो पाते हैं.
इस तरह सुख की परिभाषा में दोनों मापदंडों का अनुपात आवश्यक है - सुखानुभूति और उस पर आने वाली लागत. संभवतः कुछ भद्रपुरुष इस बात पर भी सहमत होंगे कि आपकी सुखानुभूति और उसे प्राप्त करने का माध्यम दूसरों के आराम और दिनचर्या में बाधक नहीं होना चाहिए... वरना कुछ स्वघोषित गायक और संगीतकार रियाज़ के नाम पर दूसरों का जीना हराम कर देंगे. वहीँ कुछ मनचले युवा रोज़ सड़क पर कई लोगों को कुचलेंगे... अपना वाहन-चालन का रस लेते हुए. आज भी कई लोग इस में ही बहुत सुख ले लेते हैं कि उन्होंने फलां किले के खंडहरों पर कहीं कोने में चॉक से 'दिल' का निशान बना कर गोद दिया है "Moolchand luvs Sunita"... बहुत से मजनू स्कूलों- कॉलेजों के टॉयलेट में "रूपा तू मेरी है - श्रीकांत" या फिर "प्रेमलता-मेरे दिल की रानी, I love you Premlata" जैसी घोषणाएं करके अजीब सुख महसूस करते हैं... ये हालाँकि समझ से अब तक परे है की रूपा 'बोयज़ टॉयलेट' आकर श्रीकांत की प्रेम-विज्ञप्ति कैसे पढ़ पायेगी या फिर प्रेमलता किसके दिल की रानी है.... और अगर है भी तो ये सन्देश प्रेमलता तक पहुंचेगा कैसे?
खैर, सुख की ना ख़त्म होने वाली मेरी अपनी खोज में मैंने कई विकल्प तलाशे. एक या दूसरे मापदंड पर एक के बाद एक रद्द होते विकल्पों के बीच मैं सोचने पर मजबूर हो गया की ऐसी क्या चीज़ है जो मुझे ( और अन्य सभी को भी ) उसकी लागत के अनुपात में अधिकतम सुख की अनुभूति देती है... बहुत दिमाग दौड़ाया... काफी देर सिर खुजाता रहा पर किसी चीज़ पर बात जमती नहीं दिख रही थी... आखिर सिर खुजाते-खुजाते अहसास हुआ की शायद 'यही' वो चीज़ है जिसके लिए मैं दर-दर भटक रहा था... सहसा अहसास हुआ की मेरी शर्तों को कोई सुख अगर सबसे अधिक योग्यता से पूरा करता है तो शायद 'यही' वो 'सुख' है..
..... अ...आ...sss..ह..हा..हा... ज़रा सोचिये क्या इस से बड़ा कोई सुख है जब आप की पीठ में जोर से खुजली हो रही है और आप किसी तरह अपने हाथ को लगभग तोड़-मरोड़ के अपनी पीठ के उस क्षेत्र तक पंहुचा लेते हैं जो आपने आज तक सीधा अपनी आँखों से देखा तक नहीं है.. फिर धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ते हुए आप अपनी उँगलियों को एक ताल में चलाते हैं और आँखें बंद कर ये सोचना भी नहीं चाहते की ये उंगलियाँ कब रुकेंगी... सचमुच इस से बड़ा सुख शायद और कोई नहीं... या फिर, पसीने से उत्पन्न खुजली जो आपके अधो-वस्त्रों के किनारों पर मचल रही हो... पर अपनी महिला सह-कर्मी या सह-पाठी की नज़रों के सामने होने से आप अपने हाथ वहाँ तक बढा भी नहीं पा रहे हैं... फिर, भगवान् आखिर आप की सुन लेता है... और अचानक ही वो अपने कंप्युटर स्क्रीन पर ध्यान गडा देती है ... फिर, मौके का फायदा उठाते हुए, भगवान् का शुक्रिया अदा करते हुए... आप उन दो-चार मिनटों में ही जैसे एक सदी से उठ रही खुजली को मिटा लेना चाहते हैं... सोचिये और बताइए.. इस लागत में इस से ज्यादा सुख की अनुभूति आपको कहीं मिल सकती है... ये बात दीगर है की 'खुजली' की अगली अवस्थाएँ, दाद और खाज, खुजाने की पूरी प्रक्रिया में से 'सुख' का अंश लगभग गायब कर देती... इसीलिए, मेरी निजी गुजारिश मान कर, जब मौका मिले, खूब खुजाएँ...इस विषय पर अब तक के सबसे प्रचलित विज्ञापन को थोड़ा मरोड़ते हुए - खुजली करने वाले, बी-टेक्स लगाने से पहले, जी भर खुजा ले...