Thursday, October 28, 2010

शुक्रिया... तुम्हारा शुक्रिया


जब मैं चुनौतियों की तरफ दौड़ा
सरपट, तुमने मेरा साथ दिया.

जब मेरे प्रयास नई बुलंदियों की तरफ थे
सीधी ढलानों पर तुमने पकड़ मज़बूत की.

जब कभी उड़ा और मेरे पाँव ज़मी पर न थे
तुम ही धरातल पर मुझे बांधे रहे.

परेशां हो, जब मेरे पैर उखड़ने को थे
तुमने टखनों से मुझे थाम लिए.

जब कभी मैं बहका, पैर फिसलने को थे
तुमने अहसास कराया-कुछ बंधन लाज़िमी हैं.

कॉलेज-ऑफिस की रोज़ देरी पर मैंने तुमको अक्सर कोसा
... तुम थे की फिर भी पैरों में पड़े रहे.

मंदिर-मस्ज़िद-गुरूद्वारे की दहलीज पर
तुमने मुझे कुछ देर रुकने का बहाना दिया.

तुम्हें देख मैं ज़िन्दगी के सुराखों से निकल गया
... तुम कुछ यूँ मेरी प्रेरणा बने रहे. 



शुक्रिया मेरे जूतों के फीतों, तुम्हारा शुक्रिया...
.... मैं भी कहाँ 'पम्प-शूज़' के फेर में पड़ा था...

Sunday, October 3, 2010

मेरे ख़्वाब में टमाटर आये...

इंसान सबसे ज्यादा बेबस कहाँ होता है?... हर इंसान अलग अलग परिस्तिथि में अलग अलग तरह से बेबस महसूस करता है... कोई अपने बॉस के आगे बेबस होता है.... कोई कर्मचारियों के सामने... कोई दुनिया के सामने. मुंबई की लोकल ट्रेन में... तीन लोगों की सीट पर अगर आप चौथे इंसान हैं तो आपकी बेबसी थोड़ी देर में ही जग-ज़ाहिर हो जाती है. आप लगभग मिमियाते हुए  बाकी तीनो को निरंतर उम्मीद से देखते रहते हैं कि काश अगला स्टेशन बगल वाले का हो... या फिर खिड़की के पास वाला थोडा ध्यान हटाये तो मैं उसको यही से दबा कर कुछ और जगह 'रिक्लेम' कर लूं... आखिर पूरा मुंबई बसा ही 'reclaimed land' पर है!... इधर उधर सर्वत्र .... हर इंसान बेबस ही दीखता है... एक दिन इसी विषय पर सोचते हुए, बीवी के आदेश पर मैं सब्ज़ी लेने निकल पड़ा .... ये भी एक बेबसी ही है .... यह बात दीगर है कि अब मुझे सब्ज़ी-लेना भाने लगा है... कदमो के साथ साथ सोच भी आगे बढ़ने लगी... "सब बेबस ही हैं... किसी का कहीं कोई बस नहीं.." ..... "ये लौकी क्या भाव दी भैय्या?.... साब, ४० रु. किलो... और ये शिमला मिर्च?... साब, शिमला सस्ती हो गयी है....६० रु. किलो"... मैंने कहा "सस्ती के बाद ६० रु. ?".... सब्ज़ी वाला बोला "... अरे साब कल तक ८० बेची है... ये हरा धनिया देखो १०० रु. किलो चल रहा है अभी भी!..".... "इतनी महंगी सब्जियां, मैं बुदबुदाया... और इतने सारे प्रतिबन्ध और बंदिशें?" .... मुझे फलां सब्ज़ी पसंद है, पर बीवी वही सब्ज़ी खा नहीं सकती... फलां सब्ज़ी उसे सूखी अच्छी लगती है, तो मैं शोरबे के बिना उस सब्ज़ी कि कल्पना भी नहीं कर सकता...एक सब्ज़ी को बनाने के लिए साथ में आलू भी चाहिए, मैं उस सब्ज़ी में ज्यादा आलू भी बर्दाश्त नहीं कर सकता... कोई  सब्ज़ी मुझे 'जैन-स्टाइल' (बिना लहसुन-प्याज) भाती है, तो माँ-पिताजी को उसमें तड़का चाहिए... फलां सब्ज़ी मुझे अच्छी लगती है और (खुशकिस्मती से) अन्य सबको भी पसंद है, तो वो 'टिफिन' में रखने लायक नहीं है..... इतने सारे विकल्प और लगभग सभी इतने मंहगे???...  अचानक मैं अपने आप को बहुत बेबस महसूस करने लगा... किसी तरह ३० मिनिट के 'डेली-सोप' की तरह सब्ज़ी-बाज़ार की परिक्रमा की, कुछ ज़रूरी सब्ज़ियों की खरीदारी की, जिन पर कमोबेश सर्वसम्मति रही है. कुछ भ्रमित, कुछ हताश मैं घर की ओर लौट पड़ा. रोज़ाना की तरह, 'बालिका-वधु' के साथ मेज़ पर खाना खाने बैठ गया .... मुझे मेरी थाली में रखा सलाद ५० रु. के नोट में लिपटा दिखा रहा था, कटोरी में ८० रु. का नोट तैरता दिख रहा था, थाली में एक कोने में रखी सब्ज़ी की जगह मानो छुट्टे ४५ रु. पड़े थे....

..... किसी तरह खाना गले से नीचे उतरा.... आज पेट हल्का ही था, पर दिल भारी होने लगा था... मैं सोचने लगा इंसान शायद सब्ज़ी-मंडी में ही सबसे ज़्यादा बेबस होता है, आजकल... बेबसी का अहसास और उस पर विश्वास दोनों होने लगा था...कि लेटे-लेटे मेरी आँख लग गयी... हलकी सी नींद लगी ही थी कि मेरी (अब तक छटपटा रही) अंतरात्मा जैसे सीना फाड़ कर ही बाहर आ गयी और मुझे दिलासा देते हुए बोली... "बेटा, ये सच है... कोई भी इंसान आजकल सब्ज़ी बाज़ार से ज्यादा बेबस कहीं नहीं होता" .... मैं मन ही मन खीज उठा "... मुझे इन सब्जियों से स्पष्टीकरण चाहिए (These vegetables owe me an explanation)" यही सोचते हुए मैं ख़्वाबों में खोने लगा :

मेरे पलंग के सिरहाने लुढ़कते हुए टमाटर आये
कुछ सहमे कुछ शर्माए कुछ आखें चुराए
बोल पड़े, "बाकी सबके पर निकल रहे हैं
पर हम हैं की अब भी ३६ रु. किलो चल रहे हैं"
फिर बोले,"प्याज़ वैसे थोड़ी नरम है आज
पर इसका श्रेय उसे नहीं
कोल्ड-स्टोरेज मैं छुपा है राज़
स्टोरेज वालों ने धक्के मार निकाल दिया
और इसका भाव ३०रु. से १८ पर ला दिया
आलू बात-बात पर इतराता है
हर दूसरी सब्ज़ी से चक्कर चलाता है
पर अति-आत्मविश्वास में मारा जाता है-
-आलू कहाँ १०० रु. किलो बिक पाता है?
गिलकी-तोरई-लौकी लम्बी पड़ी हैं
३५-४० रु. किलो हैं, चाहे छोटी या बड़ी हैं
पालक-मेथी दोनों कोने में मुरझाई खड़ी हैं
इनको हमेशा से जल्दी पड़ी है
जब तक ताज़ी हैं - ४० रु. किलो हैं, वरना
बाद में २० रु. किलो के भाव भी सड़ी हैं
मिर्चियाँ ज़बरदस्ती की तीखी हैं
ब्लेकमेलिंग इन्होंने शायद धनिये से सीखी है
इनको मालूम है खाना इनके बिना बे-मज़ा है
६० रु. किलो में इनको खरीदना भी सज़ा है
हरा धनिया सबसे नक्-चढ़ा है
आजकल सबसे ऊपर खड़ा है
अभिमान से फूला नहीं समा रहा
१०० रु. किलो बाज़ार में है आ रहा
फ़िज़ूल के तर्क-वितर्क करता है, कहता है
- जो दिखता है, वो बिकता है
उसको गुमाँ है- उसके सामने कौन टिकता है?"

मेरी आँखों में जो आँसू रुके हुए थे
वो टमाटर की आँखों में आ गए
मुझे लगा वो मेरा दर्द पा गए
पर उनकी पीड़ा कुछ जुदा थी
रोते हुए बोले "हम कच्चे हों, या पके-पिलपिले
हर सब्ज़ी में हम ही कट-कुचल रहे हैं
... जबकि औरों के पर निकल रहे हैं
हम हैं की अब भी ३६ रु. किलो चल रहे हैं"

Sunday, September 26, 2010

जन्मदिन पर ........... आपबीती

वो दिन रहे नहीं कि साल भर
अब इस दिन का इंतज़ार हो
अब उम्मीद भी नहीं कि
तोहफे बेशुमार हों
नए कपड़ों की ज़िद भी
अब तब करूँ
जब कोई हामी और
कोई इन्कार हो
तोहफों का मज़ा भी जाता रहा
जब अपने लिए ख़ुद खरीदार हों
चेहरे पे लकीरें यूँ झाँक रही हैं
पुरानी मंज़िलों में जैसे दरार हों
आत्म-विश्वास की चूलें कुछ हिलने लगी हैं
बालों में सफेदी भी अब मिलने लगी है
खुद को तसल्ली देता हूँ यही सोच कर
'काले बादलों पे जैसे चाँदी-किनार हो'
संबोधन भी जैसे तमाचे मार रहे हैं
पहले जो 'हैप्पी बर्थ डे, यार' थे
'हैप्पी बर्थ डे, सर' चिंघाड़ रहे हैं
बीवी के तोहफे भी जैसे
लगभग क़त्ल करते हैं
लाख कोशिश कर मुस्कुराऊँ
अन्दर आँसू छलकते हैं
अपनी पसंद की चीज़
मुझे गिफ्ट करती है
मेरी पसीने की कमाई 
आंसुओं में बह निकलती है
उपयोगिता पर कोई सवाल करूँ,
उसके पहले ही
'टेम्पो' की तरफ इशारा कर
जैसे कटाक्ष करती है,लिखा है-
'मेरी चलती है तो तेरी क्यूँ जलती है'

जन्मदिन पर पुराने तोहफे 'मिस' करता हूँ
चौकलेट-केक को मन ही मन तरसता हूँ
फिर हिम्मत बटोर, पूरे आत्म-विश्वास से
दुकान से,'किसी को गिफ्ट करना है' बोल
कुछ मिठाई-चौकलेट पैक करवाता हूँ
फिर इत्मीनान से, ऑफिस के कोने में बैठ कर
'गिफ्ट' की चीज़ों का मज़ा उठाता हूँ
दन्त-चिकित्सक के शब्द याद आते हैं
मीठे के बावजूद मुंह किरकिरा कर जाते हैं
'अपनी दाढ़ों के सुराखों पर थोड़ा ध्यान दीजिये
इस उम्र में मीठा थोड़ा कम कीजिये'

'फेसबुक' भी इक अच्छा-सस्ता साधन हो गया
मेरा परिवार अचानक रातों-रात चौगुना हो गया
अल्लाह से अब एक नया शिकवा-गिला है
उम्र के इस पड़ाव पर ये सिला मिला है
पहले जिन्हें मेरी सूरत भी याद ना थी
कॉलेज की वो लडकियां दोस्ती का दंभ भरती हैं
रात १२ बजे ही 'हैप्पी बर्थ डे' विश करती हैं

बस बहुत हो गया ये अहसास-ए-बुढ़ापा
इसके पहले कि मैं खो दूं अपना आपा
सभी बुढ़ाते जवानों का आवाह्न करता हूँ
इस विषय पर अब आन्दोलन होना चाहिए
३०-बाद 'साल गिरह मुबारक' के हर सन्देश में
उम्र का ज़िक्र प्रतिबंधित होना चाहिए
ग्रीटिंग-कार्ड्स कि कंपनियों से अनुरोध हो
इस तरह के कार्ड्स-तोहफों का प्रतिरोध हो
बल्कि गुज़ारिश है, संसद में क़ानून बनाया जाये
और जन्मदिन पर उम्र के उल्लेख को
'घोर-अपराध' की श्रेणी में लाया जाये

Thursday, May 13, 2010

Save from 'Saving'...

'Save' is the call God specially inscribes in the Indian psyche at the time of 'formation'. I have grown up ... or rather still growing up hearing this 'call'. At times I listen and follow, more often ignore it... after all its purely a matter of convenience!... As long as I can remember, I have been given this call of 'Save.... ' innumerable times. They might have started it long before that but probably I don't remember things that old or I was not big enough to understand that... I still remember my mom advising me continuously to 'save' almost everything for my younger brother... be it the chocolate, ice-cream or some pretty ordinary things... May be the advise to 'save something for somebody' is a way of communicating the closeness one has (or should have) with the person for whom one is advised to save... that might be the reason my mom never advised me to save anything for पड़ोस वाली आंटी कि पप्पी. I started saving a lot of big & small things for my brother and finally started taking a lot of pride in that ... expressing 'ये मेरा भाई है '. Be it my toys, my chocolates, my marbles, my tiffin-box, my pencil-sharpeners... anybody who was exclusively authorised to use it was my younger brother. I thought I was 'saving' enough...

... then in KG2, when I was asked by Lily Mam to sit next to Roopa Mishra on the very first day, I started feeling as if an access to Roopa will invariably have to be through me... I used to 'save' the adjoining seat for her in the Auto and some biscuits & gajak for her in my tiffin-box... Surprisingly, nobody ever asked me to 'save' these things for Roopa... Wrong, it was my instinct which was instructing me this time. It continued for some 3 months then Lily Mam, after probably noticing that I was 'saving' a bit too much for her, asked Roopa to sit with Ajay Jain and Chhidrup was seated next to me... me & Chhidrup hardly saved anything for each other after that!... Then during my adolescent years, my dad often used to convey his displeasure on putting on the best shirts & denims without a reason or an occasion... he would often suggest 'Why not save a few good shirts for special occasions, festivals, parties etc?'... Thank God, the 'instructions' gradually changed to 'suggestions'... but he also continued with 'Save time, time is money'... I often used to scoff it off with '... if time is Money, then Chouksey uncle who is a time-keeper with Ordnance Factory must be a very rich man!'... could never really understand 'How to SAVE time'... mostly I have believed, you cannot SAVE time- you can only properly utilize it. But, then again, proper utilization of time is relative. I often thought that while in college I was best utilizing my Fridays by seeing first-day-first-shows of all Sanjay Dutt's movies, but my parents never seemed to agree. Likewise, I advocated ultimate utilization of a Sunday by getting up after 9 in the morning, then watching BR Chopra's Mahabharat with breakfast... or having a brunch with 'Rajani'... then passing the whole day watching TV or listening to Music... my parents continued advocating 'Save time, it will pay you in the long run'.... I hardly listened and often argued '... यही तो उम्र है मस्ती करने की, बुढ़ापे में कौन मस्ती करेगा... ' the rebellious sort in me was completely against 'saving' of any type whatsoever...later in my college years, my parents advised me to save money while in hostel... I did save a bit... but... then splurged it on completely useless & worthless things... the tendency of 'Saving' had still not crept into me.

Getting into a job opens up a lot many avenues for oneself ... it also opens up a lot many avenues for multitude of advisors... your Boss, who has been waiting for all these years to share (bombard) his wealth of knowledge, finds an avenue and pours the essence advising you to save for the future, for a flat, for a car, for a family etc. The Administration Manager advises you to use email & SAVE paper, at the bottom of his signature in the mails you find the irritating 'Print this mail only if necessary'. Then there are so called investment advisors who come up with funny examples & reasons for you to invest & SAVE. They invariably start with 'I pray to God for your long & healthy life BUT... suppose....'... and then they will present the worst possible scenarios with your life... will scare the life out of you... all this in order to make you save something... last time I argued with an 'advisor' - "When I am not going to be there, you are gonna pay my nominees a huge sum of money!... they may not care a heck, having received the windfall.... and therefore may blow it up in a couple of months. How will you ensure that the money I am saving shall be utilised 'properly'? " The advisor had no reply to my logic... I further argued, "what's the point in saving for others' future at the cost of my present?...मैं अभी मर-मर के save करूँ और लोग  मेरे पीछे ऐश करें... जिसको ऐश करना होगा वो अपना कमाएगा और ऐश करेगा.."... I continued "... the moment we started following the Darwin's 'Survival of the fittest' principle, a lot many pains & obligations will get eliminated on their own!"... He might have been stunned on my views & approach... but so was I (as if I had propounded a new principle contrary to the theory of Insurance or rather contrary to the theory of high value Insurance availed by paying HUGE premium).... but, then there are emotions... 'Saving' has to come out of emotions not just for the sake of it... why otherwise I would have saved a seat & my lunch for Roopa when nobody asked me to and when Roopa didn't save anything at all for me ??...

'Saving' is one of the few traits that everyone wants others to develop instead of inculcating themselves. It has lead to many a disasters. The Project Tiger started by the Indian Government in 1972 is a case in point where the Govt wanted all of us to save Tigers through print and AV campaigns but didn't do much themselves. Same is the case with our politicians who keep on advising all of us to save Electricity but their own unpaid bills run into lakhs of rupees. Everybody who advises should be leading by examples. Things may then start moving in the right direction. A group of youngsters embarked on a campaign for cleaning & saving Yamuna (River) last year set an example of how you can go all the way from Mumbai to save Yamuna at Delhi, have a blast on the way (in train), loads of fun in Delhi, countless photographs & subsequent activity on facebook and still achieve a bit, not to forget the tonnes of enjoyment both for themselves & (probably) for Yamuna!!

The crux of the matter is STOP advising me to SAVE paper, electricity, fuel, power, energy, environment, rivers (Yamuna included), Nilgiri Tahr, Indian Wild Ass ... and the whole of Earth. On the contrary, I beg to be saved from ever advising Politicians, poking relatives, uninvited advisors, Happy-to-help telecallers, ever ready consultants and self-proclaimed guides...

... so what if only 1411 Tigers are left in the wild... there is only one of my kind left in the whole world... SAVE ME

Sunday, March 28, 2010

An Alternate Profession

... Got up early one morning to Milk the cows, I was new to all this... had started this little Dairy a few weeks back... I now had some 4 Cows, a calf and a Red Bull. This newly constructed Dairy, by the side of my newly acquired farm, had provision for some 20 Cows. Your newest venture gets the most of your attention, labour and everything else... so I was finding it tough to devote quite some time to my new found profession (actually an old passion) in addition to my 9 to 5 job. I always wanted to be a farmer but never really knew that it actually is a lot of hard work!... One needs to plow the fields, sow the seeds, fertilize, harvest and so on & so forth... Farming is actually a larger profession with integrated Dairy, Poultry, Sheep & Goat rearing and a hell lot of other subsidiary activities... believe me its a full-time job... you are attempting 'impossible' when you try to do it with your office-job... but that's what you have friends for... I was never so close to some of the persons as I am right now (after taking up farming). Some of my college-mates (girls) who never even used to look at me properly while in college, are suddenly fertilizing my crops, gifting me calves, horses, goats, sheep and many trees. God has never been so kind. God has also been specially kind with respect to the chunk of land I acquired. Its probably an irrigated land with enriched soil. Its a great boon as I never have to irrigate my crops. I am really blessed - my friends take turns to fertilize my crops. Irony is that I never really get to meet them while they are at it in my farm... I also have a feeling that they neither meet each other while working in my farm even at the same point of time... I have grown in status and expertise in cultivating some particular crops. Initially, I used to get a bit too affected by the local market it is not so anymore. While routinely visiting the local vegetable market, on finding that prices of Onions or green chillies were going up, I used to sow these vegetables in my farm the very next morning before leaving for office. Now, having achieved a bit, I have a tractor, harvester and a seeder. Now I often cultivate Pineapple, Bell Peppers, Artichokes, Daffodils, Red Tulips, Lavenders etc without a worry about the market to sell them. A lot many of my friends now vie for being my neighbours... Life has never been so good as far attention is concerned. But it does have its own share of responsibilities, one should reciprocate by gifting back the friends & neighbours and fertilizing their crops. It is probably the camaraderie among friends & neighbours that pays off everybody - The trees are producing fruits without any inputs or care, the hen are producing eggs without disruptions, cows & goats are producing milk, crops grow on their own... you only have to harvest everything. Suddenly the farming seems very easy & enjoyable...

.... more so on 'Farmville' .... its addictive... it does give a great high being the cynosure of all your friends' activities who have taken up 'farming' ... makes you feel a lot privileged ... I am now seriously thinking of giving-up my 9 to 5 job and take up farming full-time!