Wednesday, May 16, 2012

गर्मियां ..... और यादें

सड़क किनारे ठेले पर, गुनिया
रंगीन बोतलें सजाने लगी है
गीले टाट से ढकी बर्फ की
सिल्लियाँ अब नज़र आने लगी हैं
चिलचिलाती धूप से बच कर 
बबूल की छाँव भी सुहाने लगी है 
नारियल-पानी वाले की ठिलिया पर 
ज़्यादा भीड़ मंडराने लगी है 
गन्ने के रस की वो दुकानें, 
जो साल भर ऊंघती रहती हैं, 
अब सज-संवर इतराने लगी हैं 
'हनुमान की लस्सी' भी जैसे 
लोटे से मचल कर बाहर आने लगी है 
दिन-भर सब जिसका इंतज़ार करते हैं  
वो शाम ज़्यादा तरसाने लगी है

अब जो बड़ा होता जा रहा हूँ तो,
बचपन की गर्मियां याद आने लगी हैं
दिनभर चित्र-कथाओं का संग 
हाथों में बस 'रसना' का रंग 
और सब बच्चे-बूढों का हुडदंग 
पेड़ों पर की कच्ची कैरी, नमक-लाल मिर्च की चोरी 
मेरी प्यारी-प्यारी मौसी, बारी-बारी चटाने लगी है    
दादा-दादी के साथ रातों को खाई कुल्फी 
होठों पर फिर चिपचिपाने लगी है 
रात-रानी की खुशबु और ठंडी-ठंडी चादरों पर
सितारों की मच्छर-दानी लगी है  
किस्से-कहानियों के अपने पिटारे समेटे 
नानी मेरी मेरे सिरहाने लगी है 
नित्य-नियम की तरह नानी जी,
आज फिर एक कहानी सुनाने लगी है 
पर 'शिक्षा' तक आते-आते, 
सबको उबासी सी आने लगी है 

... वही 'शिक्षा' हम अब जी रहे हैं 
बाकी सब बातें बेमानी लगी हैं
"बाल्टी भर गयी है, नल बंद कर दो"
कानों तक आती ये आवाज़ें
मुझे फिर वास्तविकता में लाने लगी हैं

Tuesday, May 15, 2012

बात ही कुछ और है...

इनकी प्रसिद्धि बेवजह हर ओर है
पूरे ऑफ़िस में आजकल इनका ही ज़ोर है 
दरवाज़े से ही आगमन की सूचना देते हैं 
बरबस सबका ध्यान खींच लेते हैं 
हम  नाक-मुँह सिकोडें उसके पहले ह़ी 
सब के नज़दीक से निकल जाते हैं
नज़र भले ही ना आये, पर 
एक 'छाप' छोड़ जाते हैं 
दिन-भर झांकते रहते हैं, और  
दो-चार बार बाहर भी आते हैं -  
उपस्तिथि फिर दर्ज़ करवा जाते हैं 
साल भर खूब तड़पाते हैं, पर
सर्दियों में थोड़े 'ठन्डे' पड़ जाते हैं
जिनको सर्दी-झुकाम  है, शायद 
उन पर अल्लाह का करम है 
अन्यथा हर-इक  की नाक-में-दम है 

पर मिश्रा जी को इनकी कहां पड़ी है 
जहां-तहां सुराख हैं और 
एलास्टिक भी अब सड़ी है 
बेचारे अब बस टखनों से लिपटे रहते हैं 
रगड़ते-घिसटते हुए कितनी ज़िल्लत सहते हैं 
पूरे ऑफिस में फिर भी इनका ही दौर है 
मिश्राजी के मोजों की बात ही कुछ और है