सड़क किनारे ठेले पर, गुनिया
रंगीन बोतलें सजाने लगी है
गीले टाट से ढकी बर्फ की
सिल्लियाँ अब नज़र आने लगी हैं
चिलचिलाती धूप से बच कर
बबूल की छाँव भी सुहाने लगी है
नारियल-पानी वाले की ठिलिया पर
ज़्यादा भीड़ मंडराने लगी है
गन्ने के रस की वो दुकानें,
जो साल भर ऊंघती रहती हैं,
अब सज-संवर इतराने लगी हैं
'हनुमान की लस्सी' भी जैसे
लोटे से मचल कर बाहर आने लगी है
दिन-भर सब जिसका इंतज़ार करते हैं
वो शाम ज़्यादा तरसाने लगी है
अब जो बड़ा होता जा रहा हूँ तो,
बचपन की गर्मियां याद आने लगी हैं
दिनभर चित्र-कथाओं का संग
हाथों में बस 'रसना' का रंग
और सब बच्चे-बूढों का हुडदंग
पेड़ों पर की कच्ची कैरी, नमक-लाल मिर्च की चोरी
मेरी प्यारी-प्यारी मौसी, बारी-बारी चटाने लगी है
दादा-दादी के साथ रातों को खाई कुल्फी
होठों पर फिर चिपचिपाने लगी है
रात-रानी की खुशबु और ठंडी-ठंडी चादरों पर
सितारों की मच्छर-दानी लगी है
किस्से-कहानियों के अपने पिटारे समेटे
नानी मेरी मेरे सिरहाने लगी है
नित्य-नियम की तरह नानी जी,
आज फिर एक कहानी सुनाने लगी है
पर 'शिक्षा' तक आते-आते,
सबको उबासी सी आने लगी है
... वही 'शिक्षा' हम अब जी रहे हैं
बाकी सब बातें बेमानी लगी हैं
"बाल्टी भर गयी है, नल बंद कर दो"
कानों तक आती ये आवाज़ें
मुझे फिर वास्तविकता में लाने लगी हैं
कानों तक आती ये आवाज़ें
मुझे फिर वास्तविकता में लाने लगी हैं