इंसान सबसे ज्यादा बेबस कहाँ होता है?... हर इंसान अलग अलग परिस्तिथि में अलग अलग तरह से बेबस महसूस करता है... कोई अपने बॉस के आगे बेबस होता है.... कोई कर्मचारियों के सामने... कोई दुनिया के सामने. मुंबई की लोकल ट्रेन में... तीन लोगों की सीट पर अगर आप चौथे इंसान हैं तो आपकी बेबसी थोड़ी देर में ही जग-ज़ाहिर हो जाती है. आप लगभग मिमियाते हुए बाकी तीनो को निरंतर उम्मीद से देखते रहते हैं कि काश अगला स्टेशन बगल वाले का हो... या फिर खिड़की के पास वाला थोडा ध्यान हटाये तो मैं उसको यही से दबा कर कुछ और जगह 'रिक्लेम' कर लूं... आखिर पूरा मुंबई बसा ही 'reclaimed land' पर है!... इधर उधर सर्वत्र .... हर इंसान बेबस ही दीखता है... एक दिन इसी विषय पर सोचते हुए, बीवी के आदेश पर मैं सब्ज़ी लेने निकल पड़ा .... ये भी एक बेबसी ही है .... यह बात दीगर है कि अब मुझे सब्ज़ी-लेना भाने लगा है... कदमो के साथ साथ सोच भी आगे बढ़ने लगी... "सब बेबस ही हैं... किसी का कहीं कोई बस नहीं.." ..... "ये लौकी क्या भाव दी भैय्या?.... साब, ४० रु. किलो... और ये शिमला मिर्च?... साब, शिमला सस्ती हो गयी है....६० रु. किलो"... मैंने कहा "सस्ती के बाद ६० रु. ?".... सब्ज़ी वाला बोला "... अरे साब कल तक ८० बेची है... ये हरा धनिया देखो १०० रु. किलो चल रहा है अभी भी!..".... "इतनी महंगी सब्जियां, मैं बुदबुदाया... और इतने सारे प्रतिबन्ध और बंदिशें?" .... मुझे फलां सब्ज़ी पसंद है, पर बीवी वही सब्ज़ी खा नहीं सकती... फलां सब्ज़ी उसे सूखी अच्छी लगती है, तो मैं शोरबे के बिना उस सब्ज़ी कि कल्पना भी नहीं कर सकता...एक सब्ज़ी को बनाने के लिए साथ में आलू भी चाहिए, मैं उस सब्ज़ी में ज्यादा आलू भी बर्दाश्त नहीं कर सकता... कोई सब्ज़ी मुझे 'जैन-स्टाइल' (बिना लहसुन-प्याज) भाती है, तो माँ-पिताजी को उसमें तड़का चाहिए... फलां सब्ज़ी मुझे अच्छी लगती है और (खुशकिस्मती से) अन्य सबको भी पसंद है, तो वो 'टिफिन' में रखने लायक नहीं है..... इतने सारे विकल्प और लगभग सभी इतने मंहगे???... अचानक मैं अपने आप को बहुत बेबस महसूस करने लगा... किसी तरह ३० मिनिट के 'डेली-सोप' की तरह सब्ज़ी-बाज़ार की परिक्रमा की, कुछ ज़रूरी सब्ज़ियों की खरीदारी की, जिन पर कमोबेश सर्वसम्मति रही है. कुछ भ्रमित, कुछ हताश मैं घर की ओर लौट पड़ा. रोज़ाना की तरह, 'बालिका-वधु' के साथ मेज़ पर खाना खाने बैठ गया .... मुझे मेरी थाली में रखा सलाद ५० रु. के नोट में लिपटा दिखा रहा था, कटोरी में ८० रु. का नोट तैरता दिख रहा था, थाली में एक कोने में रखी सब्ज़ी की जगह मानो छुट्टे ४५ रु. पड़े थे....
..... किसी तरह खाना गले से नीचे उतरा.... आज पेट हल्का ही था, पर दिल भारी होने लगा था... मैं सोचने लगा इंसान शायद सब्ज़ी-मंडी में ही सबसे ज़्यादा बेबस होता है, आजकल... बेबसी का अहसास और उस पर विश्वास दोनों होने लगा था...कि लेटे-लेटे मेरी आँख लग गयी... हलकी सी नींद लगी ही थी कि मेरी (अब तक छटपटा रही) अंतरात्मा जैसे सीना फाड़ कर ही बाहर आ गयी और मुझे दिलासा देते हुए बोली... "बेटा, ये सच है... कोई भी इंसान आजकल सब्ज़ी बाज़ार से ज्यादा बेबस कहीं नहीं होता" .... मैं मन ही मन खीज उठा "... मुझे इन सब्जियों से स्पष्टीकरण चाहिए (These vegetables owe me an explanation)" यही सोचते हुए मैं ख़्वाबों में खोने लगा :
मेरे पलंग के सिरहाने लुढ़कते हुए टमाटर आये
कुछ सहमे कुछ शर्माए कुछ आखें चुराए
बोल पड़े, "बाकी सबके पर निकल रहे हैं
पर हम हैं की अब भी ३६ रु. किलो चल रहे हैं"
फिर बोले,"प्याज़ वैसे थोड़ी नरम है आज
पर इसका श्रेय उसे नहीं
कोल्ड-स्टोरेज मैं छुपा है राज़
स्टोरेज वालों ने धक्के मार निकाल दिया
और इसका भाव ३०रु. से १८ पर ला दिया
आलू बात-बात पर इतराता है
हर दूसरी सब्ज़ी से चक्कर चलाता है
पर अति-आत्मविश्वास में मारा जाता है-
-आलू कहाँ १०० रु. किलो बिक पाता है?
गिलकी-तोरई-लौकी लम्बी पड़ी हैं
३५-४० रु. किलो हैं, चाहे छोटी या बड़ी हैं
पालक-मेथी दोनों कोने में मुरझाई खड़ी हैं
बाद में २० रु. किलो के भाव भी सड़ी हैं
मिर्चियाँ ज़बरदस्ती की तीखी हैं
ब्लेकमेलिंग इन्होंने शायद धनिये से सीखी है
इनको मालूम है खाना इनके बिना बे-मज़ा है
६० रु. किलो में इनको खरीदना भी सज़ा है
हरा धनिया सबसे नक्-चढ़ा है
आजकल सबसे ऊपर खड़ा है
अभिमान से फूला नहीं समा रहा
१०० रु. किलो बाज़ार में है आ रहा
फ़िज़ूल के तर्क-वितर्क करता है, कहता है
- जो दिखता है, वो बिकता है
उसको गुमाँ है- उसके सामने कौन टिकता है?"
मेरी आँखों में जो आँसू रुके हुए थे
वो टमाटर की आँखों में आ गए
मुझे लगा वो मेरा दर्द पा गए
पर उनकी पीड़ा कुछ जुदा थी
रोते हुए बोले "हम कच्चे हों, या पके-पिलपिले
हर सब्ज़ी में हम ही कट-कुचल रहे हैं
... जबकि औरों के पर निकल रहे हैं
..... किसी तरह खाना गले से नीचे उतरा.... आज पेट हल्का ही था, पर दिल भारी होने लगा था... मैं सोचने लगा इंसान शायद सब्ज़ी-मंडी में ही सबसे ज़्यादा बेबस होता है, आजकल... बेबसी का अहसास और उस पर विश्वास दोनों होने लगा था...कि लेटे-लेटे मेरी आँख लग गयी... हलकी सी नींद लगी ही थी कि मेरी (अब तक छटपटा रही) अंतरात्मा जैसे सीना फाड़ कर ही बाहर आ गयी और मुझे दिलासा देते हुए बोली... "बेटा, ये सच है... कोई भी इंसान आजकल सब्ज़ी बाज़ार से ज्यादा बेबस कहीं नहीं होता" .... मैं मन ही मन खीज उठा "... मुझे इन सब्जियों से स्पष्टीकरण चाहिए (These vegetables owe me an explanation)" यही सोचते हुए मैं ख़्वाबों में खोने लगा :
मेरे पलंग के सिरहाने लुढ़कते हुए टमाटर आये
कुछ सहमे कुछ शर्माए कुछ आखें चुराए
बोल पड़े, "बाकी सबके पर निकल रहे हैं
पर हम हैं की अब भी ३६ रु. किलो चल रहे हैं"
फिर बोले,"प्याज़ वैसे थोड़ी नरम है आज
पर इसका श्रेय उसे नहीं
कोल्ड-स्टोरेज मैं छुपा है राज़
स्टोरेज वालों ने धक्के मार निकाल दिया
और इसका भाव ३०रु. से १८ पर ला दिया
आलू बात-बात पर इतराता है
हर दूसरी सब्ज़ी से चक्कर चलाता है
पर अति-आत्मविश्वास में मारा जाता है-
-आलू कहाँ १०० रु. किलो बिक पाता है?
गिलकी-तोरई-लौकी लम्बी पड़ी हैं
३५-४० रु. किलो हैं, चाहे छोटी या बड़ी हैं
पालक-मेथी दोनों कोने में मुरझाई खड़ी हैं
इनको हमेशा से जल्दी पड़ी है
जब तक ताज़ी हैं - ४० रु. किलो हैं, वरनाबाद में २० रु. किलो के भाव भी सड़ी हैं
मिर्चियाँ ज़बरदस्ती की तीखी हैं
ब्लेकमेलिंग इन्होंने शायद धनिये से सीखी है
इनको मालूम है खाना इनके बिना बे-मज़ा है
६० रु. किलो में इनको खरीदना भी सज़ा है
हरा धनिया सबसे नक्-चढ़ा है
आजकल सबसे ऊपर खड़ा है
अभिमान से फूला नहीं समा रहा
१०० रु. किलो बाज़ार में है आ रहा
फ़िज़ूल के तर्क-वितर्क करता है, कहता है
- जो दिखता है, वो बिकता है
उसको गुमाँ है- उसके सामने कौन टिकता है?"
मेरी आँखों में जो आँसू रुके हुए थे
वो टमाटर की आँखों में आ गए
मुझे लगा वो मेरा दर्द पा गए
पर उनकी पीड़ा कुछ जुदा थी
रोते हुए बोले "हम कच्चे हों, या पके-पिलपिले
हर सब्ज़ी में हम ही कट-कुचल रहे हैं
... जबकि औरों के पर निकल रहे हैं
हम हैं की अब भी ३६ रु. किलो चल रहे हैं"
5 comments:
Funny Ending...
Gud 1...especiallly last 4 lines.....ab toh mujhe bhi tamatar par daya aane lagi hai.....:O..
beechare tamatar..good one !!
Interesting!
I see that Bhabhi is featuring in most of your writings these days..guess she's not reading all this..varna tifin milta hi nahin.. :P
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